राकेश अचल। संसद के महत्वपूर्ण 20 घंटे दो ऐसे मुद्दों पर बहस की भेंट चढ़ गए जिनका कोई हासिल नही है, सिवाए संसदीय हताशा के। संसद में सत्ता पक्ष का टेसू अपनी जगह अड़ा रहा और विपक्ष का अपनी जगह। जनता को कुछ भी हासिल नहीं हुआ। जनता की केवल जेब कटी। जनता मूक दर्शक सब देखती रह गई। भारतीय संसद पर औसतन प्रति घंटे की कार्रवाई पर दो से ढाई करोड़ रुपया खर्च होता है। ये रकम जनता की गाढ़ी कमाई की होती है, लेकिन इस भारी भरकम खर्च के बाद भी संसद में जनता के मु्द्दों पर कितना विमर्श होता है, किसी से छिपा नहीं है।
वर्ष 2025 के अंतिम संसद सत्र में दो बड़ी बहसें हुई। एक वंदेमातरम पर और दूसरी एसआईआर या कहिए चुनाव सुधारों पर। वंदेमातरम के 150 साल का जश्न संसद में मनाया जाता तो ओर बात होती, लेकिन वंदेमातरम के माध्यम से संसद में केवल और केवल राजनीति हुई। सरकार यानि सत्ता पक्ष ने वंदेमातरम की वंदना करने के स्थान पर कांग्रेस और पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की मुक्तकंठ से आलोचना की। चुनाव सुधार पर बहस का लक्ष्य बदनाम हो चुकी चुनाव प्रणाली को ठीक करने के लिए नए सुझावों पर केंद्रित होने के बजाए नेहरू और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रहा। मतलब सरकार को अब बहस जनता के लिए नहीं, बल्कि अपने फायदे के लिए करना है। मजे की बात तो यह है कि सरकार का फायदा नेहरू और गांधी परिवार को गरियाने और उनको खलनायक के रुप में पेश करने में नजर आता है।
वंदेमातरम पर दस घंटे की बहस पूरी तरह निरर्थक थी। इस बहस से देश को क्या हासिल हुआ ? सरकार को यदि कांग्रेस और नेहरू से ही निपटना था तो ये काम संसद के बाहर भी किया जा सकता था। किसने रोका था। सरकार बीते ग्यारह साल से देश को कांग्रेस मुक्त बनाने के एक सूत्रीय अभियान के अलावा कर ही क्या रही है ? सरकार को यदि नेहरू की गलतियां सुधारना या नेहरू को उनके लिए दंडित करना ही है तो आगे बढे। जन गण मन के स्थान पर वंदेमातरम को राष्ट्र गान बनाकर दिखाए। राष्ट्र ध्वज को बदल दे, संविधान बदल दे। एक आम आदमी के नजरिए से देखें तो आप पाएंगे कि संसद अब आरोप-प्रत्यारोप का मंच बन गई है।
संसद में अब तथ्यों, तर्कों पर आधारित बहस नहीं, अपितु गला फाड़कर चिल्लाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है। विषय केंद्रित बहसें बंद हो चुकी हैं, क्योंकि राजनीतिक सौहार्द्र गायब है। अब सत्ता और विपक्ष शत्रु वत व्यवहार करने लगे हैं। सदन के नेता एक तरह से सदन के नहीं, अपने दल के नेता बनकर रह गए हैं। विपक्ष का एक भी सुझाव जब सरकार को ग्राह्य नहीं है तब संसदीय कामकाज का क्या मतलब ? जब कानून मेजें थपथपाने से ही बनाए जानना है तो संसद बुलाने का नाटक क्यों ? देश में जब संसद की कार्रवाई का आंखो देखा या सजीव प्रसारण नहीं होता था, तब संसद बेहतर ढंग से काम करती थी। अब सब कैमरे के सामने देखकर बोलते हैं। संसदीय भाषणों की रीलें बनाकर उनका इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जा रहा है। अब संसद में प्रधानमंत्री से लेकर सामान्य सांसदों तक में शायद ही ऐसा कोई बचा हो जो बिना आवाज ऊंची किए, बिना अभिनय किए देश के सामने मंत्रमुग्ध करने वाला भाषण देता हो।
बहरहाल हम अल्पबुद्धि, संसद के कामकाज पर टिप्पणी करने के अधिकारी शायद नहीं है, लेकिन एक आम आदमी की तरह हम मौजूदा संसद से निराश हैं। हमें लगता है मौजूदा वक्त में हमने अपने नेता खुद नहीं चुने, उन्हें उन घुसपैठियों ने चुना है जो किसी को नजर नहीं आते। यदि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के भाषणों को मथा जाए तो यही ध्वनित होता है। मौजूदा सरकार खुद दो बार आम चुनाव करा चुकी है, तो क्या मान लिया जाए कि आज की सरकार, तमाम राज्यों के मुख्यमंत्री घुसपैठियों की कृपा से ही चुने गए हैं ?
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Author: Hindusta Time News
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