राकेश अचल। हमारी अपनी सरकार ने दुनिया की सबसे बड़ी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का नाम बदलकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है। अब मनरेगा यानि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का नाम पूज्य बापू ग्रामीण रोजगार योजना हो गया है। भारत सरकार इस योजना को कांग्रेस सरकार की 60 साल की विफलताओं का खंडहर मानती थी, जिसके तहत ग्रामीणों से गढ्ढे खुदवाए जाते थे। मौजूदा सरकार ने बीते 11 साल में इस योजना को बंद तो नहीं किया, लेकिन बजट और काम के दिन अघोषित कर दिए थे। आज की सरकार को कांग्रेस सरकार की असफलताओं का खंडहर अचानक प्रिय लगने लगा।
सरकार को दरअसल कांग्रेस सरकार की तमाम योजनाओं से नहीं बल्कि उनके नामों से आपत्ति है, खासकर गांधी के नाम से। फिर चाहे वो महात्मा गांधी हों, इंदिरा गांधी हों या राजीव गांधी। सरकार ने इससे पहले एक महात्वाकांक्षी राजीव गांधी राष्ट्रीय आवास योजना का नाम बदलकर प्रधानमंत्री आवास योजना किया था। अब मनरेगा से महात्मा गांधी का नाम हटाकर पूज्य बापू नाम जोड़ दिया गया है। सरकार के लिए नई ग्रामीण रोजगार योजना बनाना आसान नहीं था, लेकिन नाम बदलना आसान था। नाम बदलने में पैसा नहीं लगता, नाम बदलने से ग्रामीणों को कोई लाभ हो या न हो, लेकिन सरकार और सरकारी पार्टी को लाभ जरूर होता है। अब सरकारी पार्टी को न महात्मा गांधी का नाम लेना पड़ेगा और न गांधी का। ये दोनों ही नाम सरकारी पार्टी की आंखों में किरकिरी जैसे हैं।
हम आपको मनरेगा के आंकड़ों में नहीं उलझाना चाहते, लेकिन ये बताना चाहते हैं कि अब भी हमारी सरकार गढ्ढे खुदवाने वाली योजना में ग्रामीणों से गढ्ढे ही खुदवाएगी। मनरेगा में पहले 100 दिन गढ्ढे खुदवाने का प्रावधान था, अब पूबारेगा में 125 दिन गढ्ढे खुदवाने का प्रावधान कर दिया है। ग्रामीणों को गढ्ढे खुदवाने से मुक्ति नाम बदलने पर भी नहीं मिलने वाली। खंडहर योजना तो खंडहर ही है, क्योंकि इस योजना का मूल चरित्र नहीं बदला। हमारी सरकार की सबसे बड़ी उपलब्धि नाम बदलने की ही है। सरकार ने शहरों, सरायों, रेल्वे स्टेशनों के नाम बदले। जैसा कि हमने पहले ही बताया कि नाम बदलना नई योजना बनाने से ज्यादा आसान काम है। नाम बदलने के लिए बजट प्रावधान नहीं करना पड़ता। नाम बदलने से यदि काम बदलता तो बात ओर थी।
आप मानें या न मानें लेकिन हमारी धारणा ये है कि सरकार अब महात्मा गांधी का नाम लेने से कतरा रही है। सरकार की दुविधा ये है कि उसके पास कोई महात्मा गांधी नहीं है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो हैं, लेकिन वे महात्मा नहीं हैं। वे हुतात्मा भी नहीं हैं। उनकी समाधि पर कोई विदेशी राष्ट्र प्रमुख आकर श्रद्धांजलि भी अर्पित करने नहीं जाता। सरकार की मजबूरी ये है कि वो महात्मा गांधी की समाधि को न दिल्ली से हटा सकती है और न उसका नाम ही बदल सकती है। अन्यथा अब तक तो समाधि का नाम पूज्य बापू समाधि कर दिया गया होता।
गुजराती में बापू सम्मानित शब्द है। गुजरात में ही नहीं बल्कि पूरी हिंदी पट्टी में बुजुर्गो को बापू ही कहा जाता है। मोहनदास करमचंद गांधी को भी गुजराती बापू ही कहते हैं। हम भी बापू कहते हैं, लेकिन उन्हें महात्मा कहने में जो आदर भाव है वो बापू में नहीं है। बापू तो कोई कथावाचक भी हो सकता है। जैसे मोरारी बापू हैं। इसलिए यदि महात्मा गांधी को महात्मा ही रहने दिया जाता तो बेहतर था। वैसे मनरेगा तो मनरेगा ही कही जाएगी, उसकी जनक कांग्रेस थी सो रहेगी। केवल नाम बदलने से मनरेगा भाजपा सरकार की अपनी उपलब्धि नहीं बन जाएगी। सच मानिए हम किसी भी योजना, संस्थान, सड़क या शहर का नाम बदलने के हर प्रयास को मानसिक दीवालियापन मानते है। सरकार को इस सबसे ऊपर उठकर काम करना चाहिए।
संदर्भ के लिए आपको बता दें कि मनरेगा (MGNREGA) महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम का संक्षिप्त रूप है, जिसकी शुरुआत 2005 में हुई थी और इसे 2009 में ‘महात्मा गांधी’ नाम दिया गया था। जिसके तहत किसी भी ग्रामीण परिवार के वयस्क सदस्य को एक वित्तीय वर्ष में 100 दिनों का गारंटीकृत अकुशल मजदूरी रोजगार मिलता है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूत करता है। महिलाओं का सशक्तिकरण करता है और ग्रामीण-शहरी प्रवासन को कम करता है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Author: Hindusta Time News
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