बवाल क्यों खड़ा किया जा रहा है..?

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व्यंग्य
विष्णु नागर। अब बवाल खड़ा किया जा रहा है कि सात सदस्यीय लोकपाल के लिए 70-70 लाख रुपयों की सात महंगी कारें क्यों खरीदी जा रही हैं, जबकि काम-धाम के नाम पर ये शून्य हैं ! आराम फरमाने के लिए सरकार ने इन्हें बंगले दे रखे हैं, सोफों से लेकर जरूरत की हर चीज़ दे रखी है। सुसज्जित ऑफिस में लमलेट होने के लिए लंबे-चौड़े कक्ष दिए हैं। आराम का इतना प्रबंध क्या कम है, जो इन्हें लंबी-चौड़ी कारें भी चाहिए ?
बताया जा रहा है कि 140 करोड़ की आबादी के इस देश में लोकपाल के पास कुल 8703 शिकायतें आई हैं। इनमें से भी इन्होंने अभी तक केवल 24 मामलों की जांच की है और रिश्वतखोरी के सिर्फ छह मामलों में मुकदमा चलाने की अनुमति दी है। काम का इनका इतना ‘शानदार’ रिकार्ड होते हुए भी इन्हें सुप्रीम कोर्ट के जजों से अधिक शानदार कारें किसलिए चाहिए ? जज तो सप्ताह में पांच दिन जमकर काम करते हैं, लेकिन बेहतरीन कारें इन्हें चाहिए, जो लगभग कुछ नहीं करते ! वैसे यह भी कोई सवाल हुआ ? आप यह बताईए कि काम और कार का क्या कभी कोई संबंध रहा है ? मजदूर सबसे ज्यादा मेहनत करता है। उसके पास किसी ने आज तक कार या स्कूटर भी देखा ? खेत मजदूर क्या कार से खेत जोतने -काटने जाता है और कार से ही झोपड़ी में लौटता है ? इसलिए सरकारी काम और कार का अगर कोई रिश्ता है, तो वह यह कि जिसके पास जितना कम काम है, उसके पास उतनी ही बड़ी कार है और उतना ही शानदार बंगला है !
जिनके पास मर्सिडीज बेंज एस- 600 कार है, वे दिनभर पत्थर नहीं तोड़ते ! दिनभर फाइलों में भी डूबे नहीं रहते ! फिर भी कार उनके पास दस करोड़ की है ! जिन प्रधानमंत्री के साथ 12-12 करोड़ की कारों का पूरा काफिला चलता है, वे उद्घाटन, आधारशिला रखने, रोड शो करने, चुनाव प्रचार करने, विदेश यात्राएं करने, मंदिर में पूजा-अर्चना करने और अपनी आराधना कराने या इससे या उससे बदला लेने, किसी का मुंह खुलाने और किसी का मुंह बंद कराने, किसी को जेल भेजने के अलावा क्या करते हैं ? कल को तो आप कहेंगे कि उनके पास भी करोड़ों की कारों का काफिला नहीं होना चाहिए ! और क्या अमित शाह वगैरह दूसरे मंत्री सस्ती कारों में चलते हैं ? उनकी कार करोड़ों की नहीं होगी ? और ये जितने सब मुख्यमंत्री हैं, सब बेहद सादगी से रहते हैं क्या ? क्या सस्ती अल्टो कार में चलते हैं ? ये उसमें चल ही नहीं सकते ! इनकी टांगें अकड़ जाएंगी, इनका मुंह टेढ़ा हो जाएगा, पांवों में कांटे चुभने लगेंगे ! उनके ‘पद की गरिमा’ का सत्यानाश हो जाएगा !
आप क्या यह कहेंगे कि ये सब तो प्रदेश और देश की सेवा करने के लिए खून-पसीना बहाते हैं, लेकिन सात लोकायुक्त निठल्ले बैठे रहते हैं ? नहीं, ये भी दरअसल उतना ही काम करते हैं, जितना कि सुबह से शाम तक हमारे प्रधानमंत्री, गृहमंत्री वगैरह करते हैं ! हां, यदि चुनावी रैलियों में भाषण देना, रोड़ शो करना, दिन में छह बार कपड़े बदलना, चेहरे का रंग-रोगन कराना भी देशसेवा है, तो क्षमा कीजिए ये नहीं करते ! यदि इन्हें ये काम भी सौंप दिया जाए तो शायद ये इसे भी कर दिखाएं ! लेकिन तब ये मांग करेंगे कि हमारा काम इतना बढ़ गया है तो अब हमारा काम 70 लाख की कार से नहीं चल सकता कम से कम पांच करोड़ की कार हमें मिलनी चाहिए ! इस पर आप फिर से बवाल मचाओगे !
सुनिए भाई साहबो और बहनो सरकार में बड़े पदों पर नियुक्तियां इस कारण नहीं होती कि उन्हें बहुत जिम्मेदारी के साथ बहुत कुछ कर दिखाना है, अपना सर्वश्रेष्ठ देना है, बल्कि इसलिए कि कुछ नहीं करना है ! काम करेंगे, तो सवाल उठेंगे। सवाल उठेंगे तो बवाल होगा और बवाल होगा, तो प्रधानमंत्री की इमेज खराब होगी ! लोग अडानी-अंबानी का नाम स्मरण पर उतर आएंगे, एंटायर पोलिटिकल साइंस के विश्व के एकमात्र विद्वान को चौथी फेल, दसवीं पास, अनपढ़ आदि उपाधियों से विभूषित करने लगेंगे ! अच्छा आप स्वयं कसम खाकर बताईए कि कार-विवाद से पहले आपमें से कितनों को याद था कि इस देश में लोकपाल नामक एक संस्था भी है, जिसके अभी सात सदस्य हैं !
ऐसे पद आमतौर पर सरकार के बेहद वफादारों के लिए आरक्षित होते हैं और बाकी जो बचते हैं, वे कारपोरेट घरानों में एडजस्ट कर दिए जाते हैं। इस तरह रिटायर होकर भी ये अफसर रिटायर नहीं होते ! इन्हें वफादारी का इनाम इसलिए भी देना जरूरी है ताकि वर्तमान जज-अफसर आदि भी वफादारी का सबक अच्छी तरह सीख लें। उनका भरोसा बना रहे कि प्रधानमंत्री-मंत्री-मुख्यमंत्री उन्हें भी रिटायरमेंट से पहले और बाद में पुरस्कृत करेंगे, वरना अफसर दस से पांच काम करेंगे। बीच में लंच करने आईआईसी या हेबिटाट सेंटर में दो घंटे गुजारेंगे। फिर शाम के छह बजते ही ताश खेलने, दारू पीने, मुर्गा खाने चले जाएंगे, क्योंकि ईमानदार बड़े अफसरों को भी इतनी तनख्वाह तो मिलती है कि वे दोपहर और शाम को किसी शानदार क्लब की सेवाएं ले सकें ! अफसर की जनता के प्रति कोई जिम्मेदारी-वफादारी होती नहीं। होती है तो प्रधानमंत्री-मंत्री आदि के प्रति ! और कोई सरकार इतनी मूर्ख नहीं होती कि अपने वफादारों को उपकृत न करे ! इसलिए ये मौज-मजे करने के पद हैं ! सत्तर लाख की कार ये लेना चाह रहे हैं, ये भूल जाओ ! भूल जाओ कि जो तरह-तरह के कर तुम देते हो, उस पैसे से ही ये सुख-सुविधाएं भोग रहे हैं। वैसे भी इतनी बड़ी भारत सरकार के करोड़ों के बजट में से लोकायुक्तों की कारों पर कुल पांच करोड़ ही तो खर्च होंगे ? इतना खर्च तो प्रधानमंत्री की एक दिन की स्वदेश यात्रा पर हो जाता है मितरो। जनता का पैसा है, जो लूट सकता है लूटे। अंबानी-अडानी लूट रहे हैं, मंत्री, नेता, अफसर लूट रहे हैं, दलाल और ठेकेदार लूट रहे हैं, तरह-तरह के ठग लूट रहे हैं, तो ये भी बेचारे भी चुल्लूभर लूट ले रहे हैं।
कबीरदास कह गए हैं कि राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट, अंत काल पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट। भारत में लूट की महत्ता पुरानी है। आज से छह सौ साल पहले राम नाम की लूट मची थी, अब उसकी जगह सरकारी धन ने ले ली है। इसलिए प्राण छूट जाने से पहले ये सब प्रेमपूर्वक इसे लूट लेना चाहते हैं, तो इस पर शोक नहीं मनाना चाहिए !
(ये लेखक के अपने विचार हैं। कई पुरस्कारों से सम्मानित विष्णु नागर साहित्यकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं। जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)

                       विष्णु नागर
Hindusta Time News
Author: Hindusta Time News

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