राकेश अचल। देश की राजनीति में खुल्लम- खुल्ला भूमिका अदा करने वाले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर प्रतिबंध की मांग अनेक कोनों से सुनाई दे रही है, लेकिन हमारा अपना मानना है कि प्रतिबंध आरएसएस को नियंत्रित करने का कोई स्थाई विकल्प नही है। बेहतर हो कि आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने की मांग करने वाले लोग संघ को कानूनी मुश्कों से बांधने की बात करें।
संघ सौ साल का हो गया है। हम संघ के वजूद को नकारते नहीं, लेकिन हमें हैरानी है कि जिस देश में 80 साल से कानून का राज है, उस देश में एक संगठन न सिर्फ कानून को ठेंगा दिखाकर चल रहा है, बल्कि अब भी सत्ता का अंग होकर कानून के दायरे में नहीं आना चाहता। ‘संघे शक्ति युगे-युगे’ भगवान श्रीकृष्ण का अमर घोष है, जो प्राणीमात्र के लिए इस सृष्टि में अनादिकाल से मार्गदर्शक रहा है। यह बात कलयुग में संघ ने आत्मसात कर ली, लेकिन संघ को संकीर्ण भी बना दिया। संघ के संस्थापकों ने संघ भारतीयों की नहीं हिंदुओं की सेवा के लिए बना दिया। संघ के लिए हिंदुओं को छोड़ महिलाएं तथा सिख, ईसाई, जैन, मुसलमान सब अस्पृश्य हैं। आज तक कोई महिला, कोई गैर हिंदू संघ का प्रमुख नहीं बना।
सब जानते हैं कि संघ का किसी भी कानून के तहत कोई पंजीयन नहीं है। आजादी के पहले बिना पंजीयन के संघ का काम करना समझ आता है, लेकिन देश में 1950 में कानून का राज कायम होने के बाद भी संघ का सतत सक्रिय रहना ये प्रमाणित करता है कि कोई भी सरकार संघ को कानून के दायरे में नहीं ला सकी। आज संघ पर पाबंदी लगाने का यही सबसे बड़ा आधार है कि संघ एक अपंजीकृत संस्था है, जबकि उसके पास लाखों सदस्य हैं, स्थावर संपत्तियां हैं। कायदे से तो सरकार को सबसे पहले आयकर, सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय की टीमें संघ के दफ्तरों पर भेजकर इस बात की जांच करना चाहिए कि एक अपंजीकृत संस्था आखिर सौ साल से चल कैसे रही है ? कहां से संघ के पास अरबों-खरबों की संपत्ति आई ? संघ पर पाबंदी की मांग करने वाली कांग्रेस को ही सबसे पहले इस अपंजीकृत संगठन की गतिविधियों और संपत्तियों को राजसात करना चाहिए। दुर्भाग्य ये है कि हमारी न्याय पालिका भी इस अपंजीकृत संस्था पर मेहरबान है और संघ के खिलाफ की गई कर्नाटक सरकार की कार्रवाई को गलत मानकर रोक लगा देती है। दरअसल संघ इन सौ सालों में अनंग की तरह सर्वव्यापी हो गया है। शिक्षा, स्वास्थ्य, न्यायपालिका, कार्यपालिका सब जगह संघी स्थापित हो चुके हैं। संघी वैज्ञानिक संस्थानों में भी हैं। पुलिस और फौज में भी हैं। इन्हें चिन्हित कर व्यवस्था से बाहर कर पाना असंभव सा है।
संघ के मुकाबले कोई है ही नहीं। वामपंथी कैडर समाप्त हो चुका है। कांग्रेस और समाजवादियों के पास आजीवन सेवा व्रती कार्यकर्त्ता हैं ही नहीं। संघ ने जीवन और समाज के हर क्षेत्र में घुसपैठ करने का काम किया है। दूसरे राजनीतिक दल संघ का विकल्प तैयार करने में नाकाम रहे। इस अपंजीकृत संगठन की आलोचना हमारी न्याय पालिका अपराध मानती है। संघ के खिलाफ मुखर चाहे मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह हों या लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता राहुल गांधी, अदालतों के चक्कर काटने पर विवश हैं। आज तक किसी संघी पर ईडी, सीबीआई का छापा नहीं पडा। उल्टे उप्र में संघ समर्थन से सरकार चला रहे मुख्यमंत्री के खिलाफ दर्ज सभी आपराधिक मामले सरकार ने वापस ले लिए। संघ पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद और बाद में आपातकाल के दौरान प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन क्या हासिल हुआ। आज ये प्रतिबंध नहीं है, बल्कि जहां-जहां भाजपा की सरकारें हैं वहां संघ फल-फूल रहा है। संघ के विस्तार में संघ के स्वयं सेवकों से ज्यादा वे चुनी हुई सरकारें योगदान कर रहीं हैं। कहीं संघी सांस्कृतिक दूत हैं तो कहीं लोकतंत्र सेनानी। कहीं वे शिक्षाविद हैं तो कहीं समाज सुधारक। संघ जलकुंभी और गाजरघास की तरह एक खरपतवार है जो अब संघातक अवस्था में पहुंच चुकी है।
जब संघ एक विधिक निकाय है ही नहीं तो उसे क्यों झेला जा रहा है ? संघ प्रमुख को किस हैसियत से जेड प्लस सुरक्षा और राजकीय सम्मान दिया जा रहा है। यदि संघ को ये सब हासिल हो सकता है तो बिना पंजीयन के तस्करी, चोरी, डकैती और हत्याएं करने वाले संगठन भी इस सुरक्षा और सम्मान की अभिलाषा कर सकते हैं। संघ से मुक्ति का एक ही रास्ता है कि या तो उसे कानून के दायरे में लाया जाए या फिर उसे राष्ट्र विरोधी, गैरकानूनी और गैरजरूरी मानकर नेस्तनाबूत कर दिया जाए। और यदि ये सब संभव नहीं है तो संघ के खिलाफ बोलना हमेशा के लिए बंद किया जाए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

Author: Hindusta Time News
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